अज्जो गुजर गयी 96 साल के एक
भरपूर जीवन के बाद ।
कोई फ़र्क नही पड़ता हमारी ज़िंदगियों पर और ऐसा कुछ खास था भी नही उनके व्यक्तित्व
मे की कोई प्रभावित हो। मैं हमेशा सोचता था की ये संबोधन अज्जो उन्हे मिला
कैसे ..जब सारे बच्चे अपनी दादी माँ को दादी या अम्मा बुलाते थे हम क्यो उन्हे अज्जो
कहते थे। शायद ये गाँव
की अजिया या आजी का खरी बोली वर्ज़न हमने बना लिया था। जब से याद आता है एक सा ही देखा उनको.. झुर्रियों
वाला झक सफेद चेहरा और रेशम से सफेद बाल ऐसे की यकीन करना मुश्किल हो की इनमे से एक
भी कभी काला रहा होगा।
पता नही किसी मे उन्हे कभी काले बालों मे देखा भी था या नही ? कभी कभी तो हम उनसे कहते
की अज्जो तुम अँग्रेज़ों जैसी दिखती हो तुम्हे इस्कॉन मे छोड आते है। जब तक गाँव मे थी हमेशा
किसी ना किसी काम मे (काम के या बेकार के) लगी। कितने चित्र है उनके …..घर लीपती अज्जो, गोबर
के उपले बनाती अज्जो, पोर मे आलू शकरकंद भुनती अज्जो, सिल बट्टे पर धनिया का नमक बनाती
अज्जो, पिट्टू गरम खेलने वाली कपड़े की गेंद बनाती अज्जो, सिरके मे पड़े आमों का पूरा
हिसाब रखने वाली अज्जो, खरबूजे के बीज सुखती फिर भिगो के सॉफ करती अज्जो, बेकार से
सामानो की पोलिथीन की पोटलियाँ बना बना कर सहेजती अज्जो, आचार के बाटले भरती अज्जो,
चक्की पर सत्तू और बेसन पीसती अज्जो, बुलौआ से लाए बतासे और बतासफेनी संभाल के रखती
अज्जो और ना जाने क्या क्या…………. और कभी कभी दोपहर को अपने सिंड्रेला जैसे सफेद बालों
मे तेल लगा कर एक फेडेड कलर का फीता लगाती अज्जो। बात बात मे रो परती थी..दुख का मौका हो या खुशी
का उनके लिए तो रोने का मौका होता।
सब के सब किसी ना किसी बात पर उनसे खीझते, कभी चिल्लाते तो कभी उनकी बातों की हँसी
उड़ाते। अज्जो घर मे
किसी से नाराज़ भी हों पर बाहर वालों से हमेशा बेटों बहुओ की सच्ची झूठी तारीफें करती
नही आघाती थी। जिस किसी
ने पास बैठ कर थोड़ी उनसे बातें कर लीं या उनकी आत्मीयता से सुन ली तो अगले कुछ महीने
उसके प्रशंसा पुराण मे गुजर जाते जब तक की कोई और उसे रेप्लेस ना कर दे । पता नही किन किन रिश्तेदारों
के किससे सुनाती जिन्हे हम ठीक से पहचानते भी नही थे। जब उनकी खबर आई तो ट्रेन मे था रात भर सोचता रहा
की कैसा जीवन था? उनका 60 वर्षों का वैधव्य, आर्थिक विषमताएँ , गाँव का कठोर जीवन इन
सब के बाद भी जीने की अद्भुत ललक थी उनमे। कभी नाती -पोतों के ब्याह तो कभी परपोतों परपोतियों के अन्प्राशॅन-मुंडन
के बहाने अपने जाने को साल दो साल टालती रहती थी। आज जब हम अँग्रेज़ी बोलते हाई फ़ाई मोटिवेशनल
गुरुओं की स्पीच मे, बेस्ट सेलर् किताबों मे जीवन का मोटिवेशन ढूँढते है..उनके इस अतिसधारन
जीवन मे ऐसा क्या मोटिवेशन था जो उन्हे जिंदा रखे था. ऐसा क्या करना था उन्हे की शरीर
के जर्जर होने के बाद भी ईश्वर से किसी ना किसी बहाने एक दो साल माँग लेती थी। शायद इसलिए की उनकी इच्छाएँ
बड़ी बेसिक थी सामान्य थी, नॅचुरल थी.. उनकी पहुच मे थी. जो उन्हे जीवन देती थी लेकिन
फ्रास्टेट नही करती थी डिप्रेस नही करती थी।
Oct 31, 2013
Oct 18, 2013
यूँ तो वो
शख़्श ज़्यादा ही
आम लगता था
उसकी बातें पर बड़ी
दूर असर करती
थी
ये समझने मे हमने
उमर लगा दी
सारी
की रोशनी भी अंधेरों
मे बसर करती
थी
वो जिसको चाँद के
चरखे पे बिठा
रखा है
जब ज़मीं पे थी
तो पेंशन पे
गुजर करती थी
बाद अम्मी के गुजरने
के उसे इल्म
हुआ
कभी कभी तो
दुआएँ भी असर
करती थी
जानें वो कैसे
गुजरेगा जिंदगी सारी
यहाँ तो रात
गुजरने मे उमर
लगती थी.
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