Oct 31, 2013

AZZO

अज्जो गुजर गयी 96 साल के एक भरपूर जीवन के बाद कोई फ़र्क नही पड़ता हमारी ज़िंदगियों पर और ऐसा कुछ खास था भी नही उनके व्यक्तित्व मे की कोई प्रभावित हो  मैं हमेशा सोचता था की ये संबोधन अज्जो उन्हे मिला कैसे ..जब सारे बच्चे अपनी दादी माँ को दादी या अम्मा बुलाते थे हम क्यो उन्हे अज्जो कहते थे शायद ये गाँव की अजिया या आजी का खरी बोली वर्ज़न हमने बना लिया था जब से याद आता है एक सा ही देखा उनको.. झुर्रियों वाला झक सफेद चेहरा और रेशम से सफेद बाल ऐसे की यकीन करना मुश्किल हो की इनमे से एक भी कभी काला रहा होगा पता नही किसी मे उन्हे कभी काले बालों मे देखा भी था या नही ? कभी कभी तो हम उनसे कहते की अज्जो तुम अँग्रेज़ों जैसी दिखती हो तुम्हे इस्कॉन मे छोड आते है जब तक गाँव मे थी हमेशा किसी ना किसी काम मे (काम के या बेकार के) लगी कितने चित्र है उनके …..घर लीपती अज्जो, गोबर के उपले बनाती अज्जो, पोर मे आलू शकरकंद भुनती अज्जो, सिल बट्‍टे पर धनिया का नमक बनाती अज्जो, पिट्टू गरम खेलने वाली कपड़े की गेंद बनाती अज्जो, सिरके मे पड़े आमों का पूरा हिसाब रखने वाली अज्जो, खरबूजे के बीज सुखती फिर भिगो के सॉफ करती अज्जो, बेकार से सामानो की पोलिथीन की पोटलियाँ बना बना कर सहेजती अज्जो, आचार के बाटले भरती अज्जो, चक्की पर सत्तू और बेसन पीसती अज्जो, बुलौआ से लाए बतासे और बतासफेनी संभाल के रखती अज्जो और ना जाने क्या क्या…………. और कभी कभी दोपहर को अपने सिंड्रेला जैसे सफेद बालों मे तेल लगा कर एक फेडेड कलर का फीता लगाती अज्जो बात बात मे रो परती थी..दुख का मौका हो या खुशी का उनके लिए तो रोने का मौका होता सब के सब किसी ना किसी बात पर उनसे खीझते, कभी चिल्लाते तो कभी उनकी बातों की हँसी उड़ाते अज्जो घर मे किसी से नाराज़ भी हों पर बाहर वालों से हमेशा बेटों बहुओ की सच्ची झूठी तारीफें करती नही आघाती थी जिस किसी ने पास बैठ कर थोड़ी उनसे बातें कर लीं या उनकी आत्मीयता से सुन ली तो अगले कुछ महीने उसके प्रशंसा पुराण मे गुजर जाते जब तक की कोई और उसे रेप्लेस ना कर दे पता नही किन किन रिश्तेदारों के किससे सुनाती जिन्हे हम ठीक से पहचानते भी नही थे जब उनकी खबर आई तो ट्रेन मे था रात भर सोचता रहा की कैसा जीवन था? उनका 60 वर्षों का वैधव्य, आर्थिक विषमताएँ , गाँव का कठोर जीवन इन सब के बाद भी जीने की अद्भुत ललक थी उनमे कभी नाती -पोतों के ब्याह तो कभी परपोतों परपोतियों के अन्प्राशॅन-मुंडन के बहाने अपने जाने को साल दो साल टालती रहती थी आज जब हम अँग्रेज़ी बोलते हाई फ़ाई मोटिवेशनल गुरुओं की स्पीच मे, बेस्ट सेलर् किताबों मे जीवन का मोटिवेशन ढूँढते है..उनके इस अतिसधारन जीवन मे ऐसा क्या मोटिवेशन था जो उन्हे जिंदा रखे था. ऐसा क्या करना था उन्हे की शरीर के जर्जर होने के बाद भी ईश्वर से किसी ना किसी बहाने एक दो साल माँग लेती थी शायद इसलिए की उनकी इच्छाएँ बड़ी बेसिक थी सामान्य थी, नॅचुरल थी.. उनकी पहुच मे थी. जो उन्हे जीवन देती थी लेकिन फ्रास्टेट नही करती थी डिप्रेस नही करती थी

Oct 18, 2013

यूँ तो वो शख़्श ज़्यादा ही आम लगता था
उसकी बातें पर बड़ी दूर असर करती थी
ये समझने मे हमने उमर लगा दी सारी
की रोशनी भी अंधेरों मे बसर करती थी
वो जिसको चाँद के चरखे पे बिठा रखा है
जब ज़मीं पे थी तो पेंशन पे गुजर करती थी
बाद अम्मी के गुजरने के उसे इल्म हुआ
कभी कभी तो दुआएँ भी असर करती थी
जानें वो कैसे गुजरेगा जिंदगी सारी
यहाँ तो रात गुजरने मे उमर लगती थी.

Sep 17, 2013

बात करने की अकल हमको अभी आई नही
गुफ्तगू होती रही पर बात बन पाई नही
शहर-ए-कारोबार मे घाटा ही बस होता रहा
नब्ज़ धंधे की पकड़ हमने कभी पाई नही
लोग तो कहते रहे है आप मे वो बात पर
हमने ही शायद कभी तक़दीर आज़माई नही
यों नही क़ि जानते ना थे क़ि होगा हॅश्र ये
दिल के आगे फिर से लेकिन अपनी चल पाई नही
सब तरफ है शोर ,मजमा ,महफिलें औ क़हक़हे
मेरे हिस्से मे क्या थोड़ी सी भी तन्हाई नही

Apr 17, 2013


तुम अधूरा स्वप्न बनकर
कब तलक छलते रहोगे
पास होकेर भी ह्रिद्य के
दूर  यो  चलते  रहोगे
शाम के सूरज के रंग से
संग के कुछ पल सुनहले
ताकना वो एकटक इस
रूप  को  तेरे  रुपहले
हाथ  हाथो  मे  लिए
बिन कुछ कहे देना भरोसा
मेरी  हर  एक  माँग  पर
वो  मुस्कुरा  देना  हमेशा
जानकर अनजान  बनकर
देखती  आँखे  तुम्हारी
है ये मेरी कल्पना सब
सत्य से पर लगती प्यारी
सत्य तुम हो, सत्य मैं हू
स्वप्न फिर यह, सत्य तो है
सृजन तक पहुचे ना पहुचे
स्वप्न का अस्तित्व तो है

Feb 4, 2013

अभी भी याद है तुमको
पुरानी बान की खटिया
जिसके तान तुमको खीचने
परते थे दर हफ्ते
वो टेबल फ़ैन सिन्नी का
बरा सेलेब्रिटी सा था
बरी जद्दोजहद रहती थी
उसके पास सोने की
उमस होती ती थी कमरे मे
जुलाइ की दोपहरी मे
मगर कुछ नींद एसी थी
की जालिम टूटती ना थी
वो मोहरी खोल कर लंबी
करी जाती थी पतलूने
वो काला जूता बाटा का
जो साला टूटता ना था
एक ही थान से काटी
कमीजें सारे बच्चों की
वो फॅशन सेन्स एसा था
की ज़्यादा सोचना ना था
बहोत कम्बख़त था
छत पर लगा
टी वी का एंटेना
जो सनडे फिल्म के टाइम
पे हिल ही जाया करता था
कि पीली रोशनी मे भी
हमे दिखता था सब क्लियर
सेलेबस धीरे धीरे पूरा
हो ही जाया करता था
कई नाज़ुक से मोरो पर
दिए धोखे हमे उसने
उतर जाती थी जब देखो
चैन उस लाल साइकल की
मैं बरबस मुस्कुरा उठता हूँ
जब भी याद करता हूँ
थोरी कठिनाइयाँ तो थी
मगर ज़्यादा बरी ना थी
कभी होती थी हरारत
मगर बीमारियाँ ना थी
चीज़ें इतनी कम थी
की जगह खाली ही रहती थी
उम्मीदें भर लो चाहे जितनी
अपने घर के कोनो मे
अभी समान से है घर भरा
पर एक खामोशी है
हमारी नींद मे सपने नही है
बस बेहोशी है
............................................................... p. s. DEDICATED TO ALL DESIES