May 7, 2014

एक दो साल पहले की बात है मुरादाबाद स्टेशन पे रात की ट्रेन का वेट कर रहा था| देर तक बैठ पाने की आदत नही सो यूही ही इधर उधर टहल के टाइम पास करने की कोशिश कर रहा था| एक बुरी आदत है ऐसे पब्लिक प्लेसस पे लोगों को अब्ज़र्व करना की कौन क्या कर रा है| चुप छाप लोगों को देखते रहने और सुनते रहने मे बड़ा आनंद आता है…और ऐसा भ्रम बना है की मेरे सिवा सब बेवकूफ़ है आस पास| इसी आनंद सागर मे विघ्न सा पड़ गया जब मेरी नज़र दो छोटे बच्चो पर पड़ी , छोटे छोटे से बच्चे , मैले-कुचैले , एक शायद 3-4 साल का और दूसरा उससे एक आध साल बड़ा होगा| पता नही क्यों लोगों से ध्यान भटक कर बच्चों पे अटक गया| मैने देखा की बड़े भाई ने छोटे को वही ज़मीन पर बैठाया और कुछ समझाया , शायद कही ना जाने की हिदायत दी और खुद चला गया प्लॅटफॉर्म पे आगे| 2-3 मिनिट के बाद देखता हूँ कि वो वापस आ रहा था , हाथ मे कुछ पकड़ा हुआ था और चेहरे और चाल मे गजब का विजयी उत्साह सा.| मेरा भी कौतुहल जाग उठा की क्या पा लिया इस बच्चे ने ऐसा | पर जब देखा की उसके हाथ मे क्या था तो लगा की लाइफ को इतने पास से नही देखना चाहिए| उन नन्हे मैले हाथों मे थी एक प्लास्टिक के दोने मे थोड़ी सी आलू की सब्जी जिसे वो किसी कूड़ेदान से उठा के लाया था| जिन लोगों ने कभी रेलवे स्टेशन की पूरी सब्जी का रसास्वादन किया है वो बखूबी जानते है की वो सब्जी का आलू इतना पुराना और मिर्च इतनी ज़्यादा होती की खाने वाला बेचारा बस थोरी सी गीली कर कर के पाँच पूड़ी निपटा देता है, लेकिन आलू को चखने या सब्जी दोबारा माँगने की हिम्मत नही करता| ऐसे ही बचे हुए आलू जो सूख से जाते है और दोने मे ही चिपके रहते है कूड़ेदान मे उठा लाया वो बच्चा| मैं सोच रहा था कि जो सब्जी इतनी बेस्वाद है की लोग खा नही पा रहे फेक दे रहे है , उसे कूड़ेदान से भी उठाकर ये बच्चा ऐसा महसूस कर रहा है जैसे उसे कोई निधि मिल गयी है| इतना ही नही उसने उस सब्जी को खुद नही खाया अपने छोटे भाई को दिया फिर से कुछ समझाया और निकल गया ऐसी ही और निधियों की तलाश मे| इस बार मैने नोटीस किया की वो हर कूड़ेदान मे झाँकता हुआ जा रहा था. 
अब मेरे दिमाग़ मे दो तरह के विचार थे| एक तो इस पाँच साल के बच्चे को ग़रीबी ने इतना परिपक्व बना दिया की भूखा होने पर भी वो पहले छोटे भाई की भूख का ध्यान रखता है| अपने खाने की तलाश मे फिर से जाता है| इतनी छोटी सी उमर मे इतनी संवेदना से डर गया मैं, ये बाल सुलभ नही है, घातक है बचपन के लिए| ज़्यादा अच्छा दृश्य ये होता की दोनो बच्चे किसी खिलोने के लिए आपस मे लड़ रहे होते छीना झपटी कर रहे होते जैसे हमारे घरों मे बच्चे करते है|
और दूसरा विचार की हम जो हमारी सदियों पुरानी संस्कृति की, सामाजिक मूल्यों की बात करते है..क्या हमारे समाज के लिए ये शर्म और ग्लानि की बात नही है की आज भी हमारे सामने इतने छोटे बच्चे कूड़ा खाने को विवश है, सिग्नल्स पे भीख माँग रहे है| वो भी हमारे समाज का ही हिस्सा है| हमारी ही सराउंडिंग है| हम इतने संवेदनहीन है की ये सब देख कर हमारी आत्मा पे कोई बोझ नही महसूस नही होता और थोड़ा बहोत हुआ भी तो हम 5 रुपये पकड़ा कर तुरंत उतार देते है| 
जैसे मैने किया की पूड़ी वाले को बोला की बच्चो को दो प्लेट पूड़ी सब्जी देदे और दूर खड़ा होकर चुप चाप देखने लगा | वहा पर सिर्फ़ छोटा बच्चा था तब, वो चौंक गया दो प्लेट ताज़ी पूड़ी देखकर लेकिन उसने खाई नही भाई का वेट किया| बड़ा बच्चा वापस आया तब भी दोनो ने बस एक एक पूड़ी खाई और वही बैठे रहे| थोड़ी देर बाद उनकी मां आ गयी| भीख नही मांगती थी ,पान मसाला बेच रह थी, दो चार लड़िया हाथों मे लटकाकर| मुझे पता नही बच्चो ने मां को क्या बताया और मां ने क्या बोला लेकिन बच्चो ने थोड़ी सी ही पूडीयाँ और खाई और बाकी रख ली शायद सुबह के लिए|
मेरी ट्रेन भी प्लेटफॉर्म पे आ चुकी थी|

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