मेरे बबराला
के
दिनो
मे अक्सर
बरेली
से
चंदौसी
तक
ऊना
हिमाचल
एक्सप्रेस
से
आ जाया करता था|
गाड़ी मे काफ़ी
सारे
रेग्युलर
पॅसेंजर
होते
थे
और
उनकी
बातों
मे
सफ़र
अच्छा
कट
जाता
था|
ऐसे ही
एक बार
मेरे
सामने
साइड
बर्थ
पर
दो
सज्जन
बैठे
थे
मूँगफलियों
और
बातों
में
पूरी
तरह
तल्लीन|
उनकी बातों
से
आभास
हुआ
की
एक
सज्जन
किसी
सरकारी
महकमे
से
थे जो की बंद
पड़े
सरकारी
कब्ज़े वाले
कारखानों
की
नीलामी
जैसा
कुछ
काम
करते
थे|
बड़ी शान
से
वो
मित्र
को
बता
रहे
थे
की
किस तरह
से
उन्होने
लोगों
को
कौड़ियों
के
दम
मे
कारखाने
दिलवाए
और
कैसे
हज़ारों
कमा
लेना
उनके
लिए चुटकी
बजाने
की
बात
है
और वायदा
भी
कर
दिया
मित्र
से
की
उन्हे
भी
एक
बंद
पड़े
कारखाने
की
ज़मीन
सस्ते
मे
दिला
देंगे
बस
थोड़ा
उपर
का
खर्चा
होगा|
इन सब बातों
के
बीच
मूँगफलियों
का
चबाना अनवरत
जारी
था
और हालाँकि
दोनो
महाशय
खिड़की
के
पास
ही
बैठे
थे
लेकिन
छिलके
ट्रेन
के
अंदर ही फर्श
पे
गिराए
जा
रहे
थे|
तभी एक लड़का जो डिब्बे मे झाड़ू लगाकर
लोगों से एक एक रुपया माँगते है झाड़ू लगता हुआ आ गया| जब वो इनकी सीट के पास आया तो
इन्होने
अपना
टिपिकल
सरकारी ब्रीफकेस
ऊपर
उठा
कर
बोला
की
साले
बड़े
चोर
होते
है
ये
समान
का
ध्यान
रखना
और फिर उस लड़के
को
बताने
लगे
की
यहा
से
भी
छिलके
बटोर
ले
वहा
भी
झाड़ू
मार
दे|
साथ ही साथ
लोगों
को ये ज्ञान
भी
दिया
की
इन
लोगों
को
पैसे
देने
की
ज़रूरत
नही
है
क्योंकि
ये
नीचे गिरा पड़ा
लोगों का सामान
मार के ही
कमा लेते है|
थोड़ी देर
के
बाद
वही
लड़का
जब
झाड़ू
लगाने
के
बाद
पैसे
माँगता
हुआ
इन
सज्जन
के
पास
पहुचा
तो
अपना
एक
रुपया
बचाने की
तैयारी
कर
चुके
थे|
उसके आते
ही
बरस
पड़े
साले
चोरी
करता
है,
दिखा जेब
क्या
समान
उठाया है
ज़ी
आर
पी
मे
दे
दूँगा
तुझे| बेचारा घबराया
हुआ
लड़का
जल्दी
उनके पास से निकला और
दो
सीट
आगे जाकर
हाथ
फैला
के
खड़ा
हो
गया|
अब मेरा
भी
सब्र
टूट
चुका
था
तो
मैने
उन
साहब
से
पूछ ही लिया,
"जनाब ये तो
ग़रीब
है
शायद
इसलिए
चोर
है
मगर
आपकी क्या
मजबूरी
है|"
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