मेरे बबराला
के
दिनो
मे अक्सर
बरेली
से
चंदौसी
तक
ऊना
हिमाचल
एक्सप्रेस
से
आ जाया करता था|
गाड़ी मे काफ़ी
सारे
रेग्युलर
पॅसेंजर
होते
थे
और
उनकी
बातों
मे
सफ़र
अच्छा
कट
जाता
था|
ऐसे ही
एक बार
मेरे
सामने
साइड
बर्थ
पर
दो
सज्जन
बैठे
थे
मूँगफलियों
और
बातों
में
पूरी
तरह
तल्लीन|
उनकी बातों
से
आभास
हुआ
की
एक
सज्जन
किसी
सरकारी
महकमे
से
थे जो की बंद
पड़े
सरकारी
कब्ज़े वाले
कारखानों
की
नीलामी
जैसा
कुछ
काम
करते
थे|
बड़ी शान
से
वो
मित्र
को
बता
रहे
थे
की
किस तरह
से
उन्होने
लोगों
को
कौड़ियों
के
दम
मे
कारखाने
दिलवाए
और
कैसे
हज़ारों
कमा
लेना
उनके
लिए चुटकी
बजाने
की
बात
है
और वायदा
भी
कर
दिया
मित्र
से
की
उन्हे
भी
एक
बंद
पड़े
कारखाने
की
ज़मीन
सस्ते
मे
दिला
देंगे
बस
थोड़ा
उपर
का
खर्चा
होगा|
इन सब बातों
के
बीच
मूँगफलियों
का
चबाना अनवरत
जारी
था
और हालाँकि
दोनो
महाशय
खिड़की
के
पास
ही
बैठे
थे
लेकिन
छिलके
ट्रेन
के
अंदर ही फर्श
पे
गिराए
जा
रहे
थे|
तभी एक लड़का जो डिब्बे मे झाड़ू लगाकर
लोगों से एक एक रुपया माँगते है झाड़ू लगता हुआ आ गया| जब वो इनकी सीट के पास आया तो
इन्होने
अपना
टिपिकल
सरकारी ब्रीफकेस
ऊपर
उठा
कर
बोला
की
साले
बड़े
चोर
होते
है
ये
समान
का
ध्यान
रखना
और फिर उस लड़के
को
बताने
लगे
की
यहा
से
भी
छिलके
बटोर
ले
वहा
भी
झाड़ू
मार
दे|
साथ ही साथ
लोगों
को ये ज्ञान
भी
दिया
की
इन
लोगों
को
पैसे
देने
की
ज़रूरत
नही
है
क्योंकि
ये
नीचे गिरा पड़ा
लोगों का सामान
मार के ही
कमा लेते है|
थोड़ी देर
के
बाद
वही
लड़का
जब
झाड़ू
लगाने
के
बाद
पैसे
माँगता
हुआ
इन
सज्जन
के
पास
पहुचा
तो
अपना
एक
रुपया
बचाने की
तैयारी
कर
चुके
थे|
उसके आते
ही
बरस
पड़े
साले
चोरी
करता
है,
दिखा जेब
क्या
समान
उठाया है
ज़ी
आर
पी
मे
दे
दूँगा
तुझे| बेचारा घबराया
हुआ
लड़का
जल्दी
उनके पास से निकला और
दो
सीट
आगे जाकर
हाथ
फैला
के
खड़ा
हो
गया|
अब मेरा
भी
सब्र
टूट
चुका
था
तो
मैने
उन
साहब
से
पूछ ही लिया,
"जनाब ये तो
ग़रीब
है
शायद
इसलिए
चोर
है
मगर
आपकी क्या
मजबूरी
है|"
random flies
May 8, 2014
May 7, 2014
कुछ दिनो
पहले
एक
शादी
मे
जाना
पड़ा|
शादी के पूजा
पाठ के
बीच
पंडित
जी की
किसी
बात
पर
लड़के के
बाप
ने
बड़े
ज़ोर
से
ऐलान
सा
किया
की…..भाई भगवान
ने
हमे
बेटी
नही
दी | हम
तो बहू को
बेटी की
तरह
रखेंगे|
ये
सुनकर
बड़ी
मुश्किल
से
मैं
खुद
को
ये
पूछने से
रोक
पाया
की
अगर
बेटी
दे
दी होती
उपरवाले
ने
तो
बहू
को
किसकी
तरह
रखते साब| ये बड़ा
ही
कामन
सा
डाइलॉग
है
जो
अक्सर
सुनने
को
मिल
जाता
है|
यार मुझे
ये
समझ नही
आता की ये तो
सबसे
स्वाभाविक
बात
है| यही आपको करना
चाहिए
और
यही
सब
आप से
उम्मीद
रखते है | (व्यवहार मे
क्या
होता
है वो
एक
अलग
कहानी
है)
तो
इसमे
ऐसा
क्या
खास
करने
वाले हो
आप
जो
इतना
ज़ोर
दार ऐलान कर रहे
हो | (जैसे कोई
ये
भी
कहता
है
की
भाई
हम
तो
बेटी
की तरह
नही
रख
पाएँगे)…
अति स्वाभाविक बात की उद्घोषणा
की
क्या
ज़रूरत|
बस वहा बैठे
लोगों
को ज़बरदस्ती
ये जतलाना
की
हमारा
हृदय
कितना
महान
और
बड़ा
है|
भाई
थोड़ा
इंतेज़ार
कर
लो
लोगों
को
मौका
दो
की
वो
करें
आपकी
तारीफ़
इतनी
भी
क्या
जल्दी
की
खुद
ही
शुरू
हो
गये|
एक दो साल पहले की बात है मुरादाबाद स्टेशन पे रात की ट्रेन का वेट कर रहा था| देर तक बैठ पाने की आदत नही सो यूही ही इधर उधर टहल के टाइम पास करने की कोशिश कर रहा था| एक बुरी आदत है ऐसे पब्लिक प्लेसस पे लोगों को अब्ज़र्व करना की कौन क्या कर रा है| चुप छाप लोगों को देखते रहने और सुनते रहने मे बड़ा आनंद आता है…और ऐसा भ्रम बना है की मेरे सिवा सब बेवकूफ़ है आस पास| इसी आनंद सागर मे विघ्न सा पड़ गया जब मेरी नज़र दो छोटे बच्चो पर पड़ी , छोटे छोटे से बच्चे , मैले-कुचैले , एक शायद 3-4 साल का और दूसरा उससे एक आध साल बड़ा होगा| पता नही क्यों लोगों से ध्यान भटक कर बच्चों पे अटक गया| मैने देखा की बड़े भाई ने छोटे को वही ज़मीन पर बैठाया और कुछ समझाया , शायद कही ना जाने की हिदायत दी और खुद चला गया प्लॅटफॉर्म पे आगे| 2-3 मिनिट के बाद देखता हूँ कि वो वापस आ रहा था , हाथ मे कुछ पकड़ा हुआ था और चेहरे और चाल मे गजब का विजयी उत्साह सा.| मेरा भी कौतुहल जाग उठा की क्या पा लिया इस बच्चे ने ऐसा | पर जब देखा की उसके हाथ मे क्या था तो लगा की लाइफ को इतने पास से नही देखना चाहिए| उन नन्हे मैले हाथों मे थी एक प्लास्टिक के दोने मे थोड़ी सी आलू की सब्जी जिसे वो किसी कूड़ेदान से उठा के लाया था| जिन लोगों ने कभी रेलवे स्टेशन की पूरी सब्जी का रसास्वादन किया है वो बखूबी जानते है की वो सब्जी का आलू इतना पुराना और मिर्च इतनी ज़्यादा होती की खाने वाला बेचारा बस थोरी सी गीली कर कर के पाँच पूड़ी निपटा देता है, लेकिन आलू को चखने या सब्जी दोबारा माँगने की हिम्मत नही करता| ऐसे ही बचे हुए आलू जो सूख से जाते है और दोने मे ही चिपके रहते है कूड़ेदान मे उठा लाया वो बच्चा| मैं सोच रहा था कि जो सब्जी इतनी बेस्वाद है की लोग खा नही पा रहे फेक दे रहे है , उसे कूड़ेदान से भी उठाकर ये बच्चा ऐसा महसूस कर रहा है जैसे उसे कोई निधि मिल गयी है| इतना ही नही उसने उस सब्जी को खुद नही खाया अपने छोटे भाई को दिया फिर से कुछ समझाया और निकल गया ऐसी ही और निधियों की तलाश मे| इस बार मैने नोटीस किया की वो हर कूड़ेदान मे झाँकता हुआ जा रहा था.
अब मेरे दिमाग़ मे दो तरह के विचार थे| एक तो इस पाँच साल के बच्चे को ग़रीबी ने इतना परिपक्व बना दिया की भूखा होने पर भी वो पहले छोटे भाई की भूख का ध्यान रखता है| अपने खाने की तलाश मे फिर से जाता है| इतनी छोटी सी उमर मे इतनी संवेदना से डर गया मैं, ये बाल सुलभ नही है, घातक है बचपन के लिए| ज़्यादा अच्छा दृश्य ये होता की दोनो बच्चे किसी खिलोने के लिए आपस मे लड़ रहे होते छीना झपटी कर रहे होते जैसे हमारे घरों मे बच्चे करते है|
और दूसरा विचार की हम जो हमारी सदियों पुरानी संस्कृति की, सामाजिक मूल्यों की बात करते है..क्या हमारे समाज के लिए ये शर्म और ग्लानि की बात नही है की आज भी हमारे सामने इतने छोटे बच्चे कूड़ा खाने को विवश है, सिग्नल्स पे भीख माँग रहे है| वो भी हमारे समाज का ही हिस्सा है| हमारी ही सराउंडिंग है| हम इतने संवेदनहीन है की ये सब देख कर हमारी आत्मा पे कोई बोझ नही महसूस नही होता और थोड़ा बहोत हुआ भी तो हम 5 रुपये पकड़ा कर तुरंत उतार देते है|
जैसे मैने किया की पूड़ी वाले को बोला की बच्चो को दो प्लेट पूड़ी सब्जी देदे और दूर खड़ा होकर चुप चाप देखने लगा | वहा पर सिर्फ़ छोटा बच्चा था तब, वो चौंक गया दो प्लेट ताज़ी पूड़ी देखकर लेकिन उसने खाई नही भाई का वेट किया| बड़ा बच्चा वापस आया तब भी दोनो ने बस एक एक पूड़ी खाई और वही बैठे रहे| थोड़ी देर बाद उनकी मां आ गयी| भीख नही मांगती थी ,पान मसाला बेच रह थी, दो चार लड़िया हाथों मे लटकाकर| मुझे पता नही बच्चो ने मां को क्या बताया और मां ने क्या बोला लेकिन बच्चो ने थोड़ी सी ही पूडीयाँ और खाई और बाकी रख ली शायद सुबह के लिए|
मेरी ट्रेन भी प्लेटफॉर्म पे आ चुकी थी|
अब मेरे दिमाग़ मे दो तरह के विचार थे| एक तो इस पाँच साल के बच्चे को ग़रीबी ने इतना परिपक्व बना दिया की भूखा होने पर भी वो पहले छोटे भाई की भूख का ध्यान रखता है| अपने खाने की तलाश मे फिर से जाता है| इतनी छोटी सी उमर मे इतनी संवेदना से डर गया मैं, ये बाल सुलभ नही है, घातक है बचपन के लिए| ज़्यादा अच्छा दृश्य ये होता की दोनो बच्चे किसी खिलोने के लिए आपस मे लड़ रहे होते छीना झपटी कर रहे होते जैसे हमारे घरों मे बच्चे करते है|
और दूसरा विचार की हम जो हमारी सदियों पुरानी संस्कृति की, सामाजिक मूल्यों की बात करते है..क्या हमारे समाज के लिए ये शर्म और ग्लानि की बात नही है की आज भी हमारे सामने इतने छोटे बच्चे कूड़ा खाने को विवश है, सिग्नल्स पे भीख माँग रहे है| वो भी हमारे समाज का ही हिस्सा है| हमारी ही सराउंडिंग है| हम इतने संवेदनहीन है की ये सब देख कर हमारी आत्मा पे कोई बोझ नही महसूस नही होता और थोड़ा बहोत हुआ भी तो हम 5 रुपये पकड़ा कर तुरंत उतार देते है|
जैसे मैने किया की पूड़ी वाले को बोला की बच्चो को दो प्लेट पूड़ी सब्जी देदे और दूर खड़ा होकर चुप चाप देखने लगा | वहा पर सिर्फ़ छोटा बच्चा था तब, वो चौंक गया दो प्लेट ताज़ी पूड़ी देखकर लेकिन उसने खाई नही भाई का वेट किया| बड़ा बच्चा वापस आया तब भी दोनो ने बस एक एक पूड़ी खाई और वही बैठे रहे| थोड़ी देर बाद उनकी मां आ गयी| भीख नही मांगती थी ,पान मसाला बेच रह थी, दो चार लड़िया हाथों मे लटकाकर| मुझे पता नही बच्चो ने मां को क्या बताया और मां ने क्या बोला लेकिन बच्चो ने थोड़ी सी ही पूडीयाँ और खाई और बाकी रख ली शायद सुबह के लिए|
मेरी ट्रेन भी प्लेटफॉर्म पे आ चुकी थी|
Apr 16, 2014
A night you sleep
Ocean deep
Dreamless
Soundless
Breathless
Even heart is at peace
When you can see you
Lying calm
At a feet
And you travel
At lightning speed
Leaving you
Still lying behind
Cold and bleak
Scene on the way
Infinite hollow space
But no fear no presage
Just gracious hope
You are going to be
Your sovereign being
But you land in an adobe
hear some sounds
See light
A child’s weep
You say to yourself
Oh no
I am trapped again
Further hv to wait
May be a 100 years
For my next big sleep.
Apr 15, 2014
90’s के Dudes:
•बाइसिकल पे आटा पिसवाने जाते थे.
•लाइन मे लग के gas (LPG) booking करवाते थे.
•सब्जी लेने नही जाते क्योंकि सब्जी सेलेक्ट करने और भाव लगवाने मे बाप ज़्यादा एक्सपर्ट होते थे.
•हीरो रेंजर साइकल को सलमान ख़ान की तरह लहरा लहरा के धीरे धीरे चलाते थे.
•जिस दिन बाप का प्रिया/बजाज सुपर मिल जाए सारे दोस्तों के घर जाते थे.
•Tuition के बाद गली के कोने पर तक फालतू ही ही करते रहते थे और सब गर्ल्स के चले जाने बाद ही हिलते थे.
•नोट्स रेडी रखते थे ताकि कोई लड़की माँग ले तो माना ना करना परे.
•अपने ही क्लास की भी गर्ल्स को आप कह के बात करते थे.
•Archie's गॅलरी मे 2-2 घंटे तक कार्ड सेलेक्ट करते थे और उस पर 5 कलर के स्केच पेन से msg लिखते….जिसमे 3-4 दोस्त की हेल्प लेते थे
•प्रपोज़ करने के लिए लड़की को लेटर पकड़ाते थे….और डेट्स पे सारे बिल खुद पे करते थे.
•स्टील फ्रेम मे 0.25 पावर के lenses मे दूसरों से ज़्यादा इंटेलिजेंट एपीयर होते थे.
• Highschool (10th) मे first division मार्क्स आते ही IIT और फिर IAS की प्लॅनिंग करते थे.
•ब्लॅंक कॅसेट मे Rs.1.5/song के हिसाब से रोमॅंटिक songs रेकॉर्ड करवाते थे और गर्लफ्रेंड को गिफ्ट करते थे.
•असेंबल्ड stereo (डेक) और साउंड बॉक्सस के साथ perfection की तलाश मे bass treble सेट करते रहते थे . (और झंकार बीट्स कॅसेट प्ले करते थे)
•जीन्स पहनने से बड़ों और टीचर्स की नज़र मे गिर जाते थे.
•फ्रस्ट्रेशन निकालने को..दोस्तों के साथ सिगरेट और कोल्ड ड्रिंक पीते थे
•लाइन मे लग के gas (LPG) booking करवाते थे.
•सब्जी लेने नही जाते क्योंकि सब्जी सेलेक्ट करने और भाव लगवाने मे बाप ज़्यादा एक्सपर्ट होते थे.
•हीरो रेंजर साइकल को सलमान ख़ान की तरह लहरा लहरा के धीरे धीरे चलाते थे.
•जिस दिन बाप का प्रिया/बजाज सुपर मिल जाए सारे दोस्तों के घर जाते थे.
•Tuition के बाद गली के कोने पर तक फालतू ही ही करते रहते थे और सब गर्ल्स के चले जाने बाद ही हिलते थे.
•नोट्स रेडी रखते थे ताकि कोई लड़की माँग ले तो माना ना करना परे.
•अपने ही क्लास की भी गर्ल्स को आप कह के बात करते थे.
•Archie's गॅलरी मे 2-2 घंटे तक कार्ड सेलेक्ट करते थे और उस पर 5 कलर के स्केच पेन से msg लिखते….जिसमे 3-4 दोस्त की हेल्प लेते थे
•प्रपोज़ करने के लिए लड़की को लेटर पकड़ाते थे….और डेट्स पे सारे बिल खुद पे करते थे.
•स्टील फ्रेम मे 0.25 पावर के lenses मे दूसरों से ज़्यादा इंटेलिजेंट एपीयर होते थे.
• Highschool (10th) मे first division मार्क्स आते ही IIT और फिर IAS की प्लॅनिंग करते थे.
•ब्लॅंक कॅसेट मे Rs.1.5/song के हिसाब से रोमॅंटिक songs रेकॉर्ड करवाते थे और गर्लफ्रेंड को गिफ्ट करते थे.
•असेंबल्ड stereo (डेक) और साउंड बॉक्सस के साथ perfection की तलाश मे bass treble सेट करते रहते थे . (और झंकार बीट्स कॅसेट प्ले करते थे)
•जीन्स पहनने से बड़ों और टीचर्स की नज़र मे गिर जाते थे.
•फ्रस्ट्रेशन निकालने को..दोस्तों के साथ सिगरेट और कोल्ड ड्रिंक पीते थे
…..भर आई ना आँखे…ये चूतियापा याद करके……
Mar 30, 2014
HAPPINESS
Happiness is
'first bite of hot crispy samosa just outta kadai.
'a place to pee after
two beers and an hour of wait
'a soft baby hand on
your cheek..
'noticing that she is
also noticing you..
'near generator in a
party when there is a uncontrollable urge to fart..
'Maggi…..
'an afternoon spent
sleeping..
'doodh ke bartan malai
…direct into mouth..
'looking at a sleeping
kid…
'being alone in a
train compartment
'getting up to see its
only 4:30 am when you’re alarm is set at 6:00
Oct 31, 2013
AZZO
अज्जो गुजर गयी 96 साल के एक
भरपूर जीवन के बाद ।
कोई फ़र्क नही पड़ता हमारी ज़िंदगियों पर और ऐसा कुछ खास था भी नही उनके व्यक्तित्व
मे की कोई प्रभावित हो। मैं हमेशा सोचता था की ये संबोधन अज्जो उन्हे मिला
कैसे ..जब सारे बच्चे अपनी दादी माँ को दादी या अम्मा बुलाते थे हम क्यो उन्हे अज्जो
कहते थे। शायद ये गाँव
की अजिया या आजी का खरी बोली वर्ज़न हमने बना लिया था। जब से याद आता है एक सा ही देखा उनको.. झुर्रियों
वाला झक सफेद चेहरा और रेशम से सफेद बाल ऐसे की यकीन करना मुश्किल हो की इनमे से एक
भी कभी काला रहा होगा।
पता नही किसी मे उन्हे कभी काले बालों मे देखा भी था या नही ? कभी कभी तो हम उनसे कहते
की अज्जो तुम अँग्रेज़ों जैसी दिखती हो तुम्हे इस्कॉन मे छोड आते है। जब तक गाँव मे थी हमेशा
किसी ना किसी काम मे (काम के या बेकार के) लगी। कितने चित्र है उनके …..घर लीपती अज्जो, गोबर
के उपले बनाती अज्जो, पोर मे आलू शकरकंद भुनती अज्जो, सिल बट्टे पर धनिया का नमक बनाती
अज्जो, पिट्टू गरम खेलने वाली कपड़े की गेंद बनाती अज्जो, सिरके मे पड़े आमों का पूरा
हिसाब रखने वाली अज्जो, खरबूजे के बीज सुखती फिर भिगो के सॉफ करती अज्जो, बेकार से
सामानो की पोलिथीन की पोटलियाँ बना बना कर सहेजती अज्जो, आचार के बाटले भरती अज्जो,
चक्की पर सत्तू और बेसन पीसती अज्जो, बुलौआ से लाए बतासे और बतासफेनी संभाल के रखती
अज्जो और ना जाने क्या क्या…………. और कभी कभी दोपहर को अपने सिंड्रेला जैसे सफेद बालों
मे तेल लगा कर एक फेडेड कलर का फीता लगाती अज्जो। बात बात मे रो परती थी..दुख का मौका हो या खुशी
का उनके लिए तो रोने का मौका होता।
सब के सब किसी ना किसी बात पर उनसे खीझते, कभी चिल्लाते तो कभी उनकी बातों की हँसी
उड़ाते। अज्जो घर मे
किसी से नाराज़ भी हों पर बाहर वालों से हमेशा बेटों बहुओ की सच्ची झूठी तारीफें करती
नही आघाती थी। जिस किसी
ने पास बैठ कर थोड़ी उनसे बातें कर लीं या उनकी आत्मीयता से सुन ली तो अगले कुछ महीने
उसके प्रशंसा पुराण मे गुजर जाते जब तक की कोई और उसे रेप्लेस ना कर दे । पता नही किन किन रिश्तेदारों
के किससे सुनाती जिन्हे हम ठीक से पहचानते भी नही थे। जब उनकी खबर आई तो ट्रेन मे था रात भर सोचता रहा
की कैसा जीवन था? उनका 60 वर्षों का वैधव्य, आर्थिक विषमताएँ , गाँव का कठोर जीवन इन
सब के बाद भी जीने की अद्भुत ललक थी उनमे। कभी नाती -पोतों के ब्याह तो कभी परपोतों परपोतियों के अन्प्राशॅन-मुंडन
के बहाने अपने जाने को साल दो साल टालती रहती थी। आज जब हम अँग्रेज़ी बोलते हाई फ़ाई मोटिवेशनल
गुरुओं की स्पीच मे, बेस्ट सेलर् किताबों मे जीवन का मोटिवेशन ढूँढते है..उनके इस अतिसधारन
जीवन मे ऐसा क्या मोटिवेशन था जो उन्हे जिंदा रखे था. ऐसा क्या करना था उन्हे की शरीर
के जर्जर होने के बाद भी ईश्वर से किसी ना किसी बहाने एक दो साल माँग लेती थी। शायद इसलिए की उनकी इच्छाएँ
बड़ी बेसिक थी सामान्य थी, नॅचुरल थी.. उनकी पहुच मे थी. जो उन्हे जीवन देती थी लेकिन
फ्रास्टेट नही करती थी डिप्रेस नही करती थी।
Oct 18, 2013
यूँ तो वो
शख़्श ज़्यादा ही
आम लगता था
उसकी बातें पर बड़ी
दूर असर करती
थी
ये समझने मे हमने
उमर लगा दी
सारी
की रोशनी भी अंधेरों
मे बसर करती
थी
वो जिसको चाँद के
चरखे पे बिठा
रखा है
जब ज़मीं पे थी
तो पेंशन पे
गुजर करती थी
बाद अम्मी के गुजरने
के उसे इल्म
हुआ
कभी कभी तो
दुआएँ भी असर
करती थी
जानें वो कैसे
गुजरेगा जिंदगी सारी
यहाँ तो रात
गुजरने मे उमर
लगती थी.
Sep 17, 2013
बात करने की
अकल
हमको
अभी
आई
नही
गुफ्तगू होती रही
पर
बात
बन
पाई
नही
शहर-ए-कारोबार
मे
घाटा
ही
बस
होता
रहा
नब्ज़ धंधे की
पकड़
हमने
कभी
पाई
नही
लोग तो कहते
रहे
है
आप
मे
वो
बात
पर
हमने ही शायद
कभी
तक़दीर
आज़माई
नही
यों नही क़ि जानते ना थे क़ि होगा हॅश्र ये
दिल के आगे फिर से लेकिन अपनी चल पाई नही
सब तरफ है शोर ,मजमा ,महफिलें औ क़हक़हे
मेरे हिस्से मे क्या थोड़ी सी भी तन्हाई नहीApr 17, 2013
तुम अधूरा स्वप्न बनकर
कब तलक छलते
रहोगे
पास होकेर भी ह्रिद्य
के
दूर यो चलते रहोगे
शाम के सूरज
के रंग से
संग के कुछ
पल सुनहले
ताकना वो एकटक
इस
रूप को तेरे रुपहले
हाथ हाथो मे
लिए
बिन कुछ कहे
देना भरोसा
मेरी हर
एक
माँग
पर
वो मुस्कुरा देना हमेशा
जानकर अनजान
बनकर
देखती आँखे
तुम्हारी
है ये मेरी
कल्पना सब
सत्य से पर
लगती प्यारी
सत्य तुम हो,
सत्य मैं हू
स्वप्न फिर यह,
सत्य तो है
सृजन तक पहुचे
ना पहुचे
स्वप्न का अस्तित्व
तो है
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